झरने के पास पहुँच कर उस पथिक ने अञ्जलि द्वारा अपने मुख को जल से धोया और तृषा शांत की; निकट ही कलियों के भार से झुके हरसिंगार का पेड़ था; उसके निचे की शिला पर अपने कंधे का कम्बल डालकर पथिक उसी पर लेट गया; कुछ ही छड़ो में उसकी नासिका से खर्राटे की आवाज निकलने लगी;
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शरद की वही शुभ्र पूर्णिमा थी, जिसमे कभी लीलाघर(श्री कृष्ण) के अधरों से लगी वंशी ने त्रिभुवन को सुधा-स्न्नान किया था। धरती ज्योत्स्ना की गोद में नीरव शांत वनस्थली सुषुप्ति-सुख का अनुभव कर रही थी। पथिक एक पूरी निद्रा ले लेने के बाद जगा। जगते ही पथिक की क्षुधा ने क्षुभित किया और अपने झोले से वह साथ लाया भोजन निकालकर खाने लगा।
क्षुधा शांत हो गई। झरने के मधुर जल ने उसे संतुष्ट कर दिया। प्रगाढ़ निद्राने पथ-श्रम दूर कर दिया; शशाङ्क के इस महोत्सव में पथिक प्रफुल्ल था; उसका हृदय शांत और प्रसन्न था; हरसिंगार की कलिकाएँ खिलने लगी थी; उनकी मधुर सुगन्धि से वायु आनंद प्रदान कर रही थी; पथिक ने पुनः शयन का विचार नहीं किया; इतने शांत-सुहावने समय को वह यों ही निद्रा में खोना नहीं चाहता था; उसने उसी कम्बल पर आसान लगाया और अपने झोले से कुछ कागज, नोटबुक, पेंसिल निकालकर वह अपने आगे के कार्यक्रम को निश्चित करने में लग गया;
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नोटबुक खोलते ही उसे अपना ही लिखा हुआ एक पंक्ति दिखा ‘सत्यप्रतिष्ठायां क्रिया-फलाश्रयत्वम’ और इस पंक्ति के निचे लाल पेंसिल से चिह्न लगा था; पंक्ति को पढ़कर वह पथिक सोचने लगा की ‘सत्य में दृढ़ स्थिति हो जाये तो कर्म का इक्षित फल प्राप्त होता हैं;’ यह महर्षि पतंजलि का वचन हैं; मै इस पर चिन्ह भी लगाया हैं की अवसर पड़ने पर इस पर विचार करूँगा; महर्षि का वाक्य मिथ्या तो नहीं हो सकता फिर क्यों न सब जंजाल और दाँव-पेंच को छोड़कर साथ ही सभी मोह-माया से दूर; हमेशा के लिए सत्य में ही दृढ हो जाऊ और जीवन यापन इसी प्रकार बिता दूँ;
पथिक कोई ज्ञानी पंडित जान पड़ता था; पथिक एक गहरी विचार में डुब गया तथा पतंजलि महर्षि के वचन पर विचार करने लगा;
पिण्डारो (ठगों) ने बड़ा उत्पात मचा रखा था; वे यात्रियों को तो लुटते ही थे, अवसर देखकर ग्राम एवं बाजारों को भी लुट लेते थे; धीरे-धीरे उनका दल बढ़ता ही जाता था; छत्तीसगढ़ में उनका प्राबल्य था और उसमे भी रायपुर-राज्य में; उन्होंने अब अपना सुदृढ़ संगठन बना लिया था एवं मिलकर डकैती करने लगे थे।;
यात्रियों तक हो तो कोई बात भी हैं, ग्राम और बाजार से बढ़ते-बढ़ते पिण्डारों ने राज्य का तहसील से आता हुआ खजाना भी लूट लिया था; खजाने के साथ आने वाले सिपाहियों को उन्होंने मार दिया था; इससे सैनिको में बड़ी उत्तेजना थी; सभी को प्राण प्यारे होते हैं; सभी जगह उपर्युक्त घटना की चर्चा थी और सिपाही नगर से बहार कहीं भी खजाने के साथ न जाने की सलाह कर रहे थे;
बात मंत्री तक पहुँचीं और उसने महाराज को एक की दो बनाकर समझाया; क्युकी कुशल सचिव चाहता था की पिण्डारो का शीघ्र दमन हो; यही कारण है की मोहन सिंह के समान शांत और महल में पड़े रहने वाला राजा भी आज व्यग्र था; राज्य की ओर से कान में तेल डालकर सोने वाले राजा को भी चिंता हो गयी; कहीं पिण्डारे राज्य पर अधिकार न कर बैठे; अपनी सत्ता की रक्षा के विचार से राजा आज व्याकुल था;
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लगभग सब चतुर , शिक्षित एवं वीर नागरिक निमंत्रित किये गए; उन दिनों के राज्य ही कितने बड़े थे; नगर को एक अच्छा बाजार कहना चाहिए; महराज का दरबार लगा। प्रश्न था- “पिण्डारों का दमन कैसे हो ?” अंत में मंत्री की सम्मति सबको प्रिये लगी की ‘पिण्डारों के गुप्त अड्डों का पता लगाया जाये; वहां वे सब लोग कब इकठ्ठा और असावधान रहते हैं, यह ज्ञात किया जाय; उसी समय उन पर अचानक हमला हो;
यह काम करे कौन ? बड़ा टेढ़ा प्रश्न था; महाराज ने बीड़ा रखा और पद, पुरस्कार तथा जागीर का लोभ दिखाया; प्राण प्राण पर खेलने का प्रश्न था; सबके सर झुके थे; बड़ी देर हो गयी, पर किसी ने बीड़ा नहीं उठाया। Short Moral Stories In Hindi.
अंत में एक ब्राह्मण युवक उठा। सावला-दुबला शरीर, भाल पर भस्मका त्रिपुण्ड और भुजा तथा कंठ में रुद्राक्ष की माला; सब उसे आश्चर्य से देखने लगे; उसने बीड़ा उठाकर मुख में रखा और बिना किसी को बोलने का अवसर दिये सभा से शीघ्रता के साथ चला गया;
‘आप कहा जा रहे हैं ?’ हरसिंगार के वृक्ष के निचे बैठे पथिक से दूसरे व्यक्ति ने पूछा वह भी वेश-भूषा से पथिक ही जान पड़ता था; उस व्यक्ति ने बड़े आत्मविश्वास के साथ सरल शब्द में एकदम शुद्ध सत्य कहा ‘पिण्डारों के अड्डे पर;’ बिना किसी संकोच के उसे उत्तर मिला; प्रश्नकर्ता को ऐसा उत्तर पाने की तनिक भी आशा न थी; वह भौचक्का रह गया और घूरकर उस पथिक के मुख को देखने लगा;
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‘भाई ! मै भी यात्री हूँ; इधर वन में भय हैं इसीलिए साथी की प्रतीक्षा में बैठ गया था। आप मुझसे हँसी क्यों करते हैं ? पिंडरा थोड़े ही हूँ; जो उनका पता पूछ रहे हो;’ पथिक के उत्तर से उस पूछने वाले को, जो सचमुच ठगो का प्रधान था संदेह हो गया की कही यह पथिक मुझे पहचानकर तो व्यंग नहीं कर रहा हैं;
‘हँसी नहीं कर रहा।’ गंभीरता से पथिक ने कहा; ‘सचमुच ही मैं पिण्डारों के अड्डे पर जाना चाहता हूँ परन्तु अभी तक मुझे मेरे गंतव्य का कुछ भी पता नहीं लग सका हैं। कितना अच्छा होता की कोई पिण्डरा मुझे मिल जाता! ‘
‘और तुम्हें ठिकाने लगाकर कपडे-लत्ते लेकर चम्पत होता !’ हँसकर ठगने बात पूरी की और ध्यान से अपने शब्दों के भाव को पथिक के मुखपर देखने लगा;
‘ठिकाने लगाने या चम्पत होने की कोई बात नहीं ‘ पथिक की गम्भीरत्ता अखंड थी। ‘मेरे पास आठ अशर्फियाँ हैं ये वस्त्र, इन्हे मै प्रसन्नता से दे सकता हूँ। फिर कोई ब्राह्मण को व्यर्थ क्यों मारेगा ?’
निःस्वार्थ भाव से, साधू मन से पथिक द्वारा कहे गए इन सत्य वचनो ने डाकुओं के सदार पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। पथिक द्वारा अपने प्राण की तनिक भी चिंता किये बिना सत्य बोलने की और अपना सब कुछ उस सत्य के लुटा देने की आध्यात्मिकता ने डाकुओं के सदार का हृदय परिवर्तन कर दिया और उसने हाथ जोड़ कर उस पथिक से कहा –
‘देवता ! तब आपको पता होना चाहिए की मै ही यहाँ के पिण्डारों का सरदार हूँ।’ उसने ब्राह्मण के मुख पर अपने नेत्र गड़ा दिये।
पथिक उल्लसित हो उठा- ‘जय शंकर भगवान् की ! मुझे व्यर्थ में भटकना न होगा। आप चाहे तो ये अशर्फियाँ ले ले और कहें तो लँगोटी लगाकर अब कपडे भी उतार दूँ, अशर्फियों को ब्राह्मण ने झोले से निकालकर ठग के आगे रख दिया।
जहाँ हर कोई पिंडारियों के नाम से भी काँप जाता हैं वही पिंडारियों के सरदार को सामने देख कर डरने की जगह इस ब्राह्मण को अत्यंत हर्ष हो रहा हैं और यह ख़ुशी-ख़ुशी सबकुछ बिन मांगे उस पिण्डारी को देने के लिए तैयार हैं।
पिंडारी की चेतना जागृत हो गई की आखिर कितना महान यह ब्राह्मण हैं सत्य के लिए ख़ुशी-ख़ुशी अपने प्राण देने तैयार हैं और एक मैं हूँ किसी को प्राण देना तो दूर किसी भूखे को एक समय का भोजन भी नहीं कराया और साथ ही दूसरे को लुटाता रहा। ठग के ह्रदय में भी सत्य स्थापित हो गया और फिर उसने पथिक से पूछा-
‘आप मेरे अड्डे पर क्यों जाना चाहते हैं ?’ सरदार ने ब्राह्मण की निःस्पृहता और प्रसन्नता से कुतूहल में पड़ कर पूछा। ठग ने अशर्फियाँ उठा ली थी और वस्त्र उतरवाने की बात भी भूल चूका था।
ब्राह्मण एक क्षण रुका -‘क्या यहाँ भी सत्य……..निश्चय। जब सत्य बोलने से इतनी सफलता हुई हैं तो आगे झूठ नहीं बोलूँगा। ‘उसने स्पष्ट बता दिया की मैं रायपुर-राज का गुप्तचर होकर आया हूँ। ‘ उसने कहा- ‘मैंने अनेकों युक्तियाँ सोंची, किन्तु महर्षि के सूत्र ने सबको दबा दिया। मैंने निश्चय किया की मैं झूठ नहीं बोलूँगा और अब तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि जीवन में कभी भी असत्य आश्रय नहीं लूँगा। ‘
ब्राह्मण युवक के मुखपर सात्त्विक दृढ़ता थी। ठगो के सरदार का हृदय भी मनुष्य का ही हृदय था सात्विक ब्राह्मण के दृढ़ता ने ठग के हृदय में सुप्त मनुष्य को जागृत कर दिया। चुपचाप घूमकर नेत्र पोंछे और ब्राह्मण को पीछे आने का संकेत करके घनी झाड़ियों के बिच में घुसने लगा।
रायपुर के महाराज का दरबार लगा था। ब्राह्मण रुद्रदेव शर्मा अपनी यात्रा को समाप्त कर पिण्डारों के अड्डे का पता, वहाँ का मार्ग, उनकी शक्ति प्रभृति सबका पता लगाकर आ गये थे। राज सभा में उन्होंने उन्होंने सब बातों को सुविस्तार सुनाया। केवल उन्होंने छोड़ दिया, अपने यात्रा में घटित ठग के साथ मुलाकात को।
‘पिण्डारो पर चढ़ाई का भार कौन लेगा ?’ महाराज ने पूछा। ‘किन्तु पिण्डारे तो परास्त हो चुके हैं। उनपर अब चढ़ाई होगी क्यों ?’ एक हट्टे-कट्टे पुरुष ने सभा में प्रवेश करते हुए कहा; ‘गुरुदेव की सत्यता ने पिण्डारों को पूरी तरह परास्त कर दिया हैं और उनका सरदार अब उनका स्वेच्छाबंदी हैं;’ Moral Stories In Hindi
हट्टा-कट्टा पुरुष ठगो का सरदार था तथा उसने अपनी पूरी सेना के साथ डाकू का कर्म छोड़ दिया; वह ब्राह्मण रुद्रदेव शर्मा के चरणों पर गिर कर फुट-फुट कर रोने लगा;
सब चकित थे और ब्राह्मण कर्तव्यविमूढ़ ! पूरा वृतांत ज्ञात होने पर महाराज सिंहासन से उतर पड़े। उन्होंने ब्राह्मण के चरणों में मस्तक रखा और उस सरदार को उठाकर ह्रदय से लगा लिया। रुद्रदेव शर्मा राजगुरु हो गये एवं अभय सिंह पिंडरा रायपुर-राज्य के मंत्रित्व को सँभालने के लिए विवश हुए।
इतिहास अस्थिर होता हैं, किन्तु महत्कर्म उसे भी स्थायी बना ही जाते हैं। छत्तिश्गढ़ की जंगली जातियों में अब भी शपथ देते समय पथिक ब्राह्मण रुद्रदेव शर्मा की याद में ‘झूठ बोलू तो रूद्र की सौगंध ‘ कहने की प्रथा हैं। विस्वास किया जाता हैं की रूद्र का नाम लेकर झूठ बोलने वाले के घर पर या तो चोरी होती हैं या डाका पड़ता हैं। रूद्र देव शर्मा वहा आज भी सत्य के प्रतिक माने जाते हैं।
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