गीता के प्रथम 10 श्लोक हिंदी व्याख्या सहित :
गीता ज्ञान के ज्ञान के रहस्यों को जान लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता हैं। पुरे विश्व में गीता को किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं हैं गीता वह कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं जिसको प्रमाण मान कर ऋषियों ने विद्वानों ने अपनी रचनाएँ की हैं। विद्या का लक्ष्य गीता के परम रहस्यों को ही जानना हैं। गीता खुद प्रमाण हैं, गीता को किसी भी प्रकार के प्रमाण की आवश्यकता नहीं हैं। बड़े बड़े आचार्यो ने विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धांतो की प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए श्री गीता को ही मख्य आधार माना हैं। गीता पर भाष्य रच, टिका लिख अपने सिद्धांतो को गीता-सम्मत बताना ही आचार्यो का हमेशा से लक्ष्य रहा हैं।गीता-विरोधी किसी भी संप्रदाय को विद्वान जान असंभव समझते हैं। विद्वान जानो का तो मानना है जो भी धर्म गीता से सर्व सम्मत नहीं हैं फिर वो धर्म नहीं अधर्म की श्रेणी में आता हैं। जिस धर्म, आचार व सिद्धांत को ब्रह्मरूपा गीता से सिद्ध कर दिया वो सर्वशास्त्र और वेद-सम्मत मान लिया जाता हैं।
द्वापरयुग(आज से लगभग साढ़े पाँच हजार वर्ष पहले ) में हस्तिनापुर के भाइयो की लड़ाई पुरे भारतवर्ष में भीषड़ युद्ध का रूप में बदल जाती हैं परमाणु बम जैसे विध्वंशक अस्त्र ब्रह्मास्त्र का साक्षी रहा लाखो से ज्यादा लोगो की हत्या हुई इस पुरे इतिहास को महर्षि व्यास में महाभारत नामक विश्व के सबसे बड़ी रचना में लिखा हैं। महाभारत युद्ध में इतना लहू बहा था की करुक्षेत्र की रणभूमि आज भी लाल हैं। यह युद्ध सिर्फ हस्तिनापुर के सिंघासन पर सिर्फ अधिकार या वर्चस्व के लिए ही नहीं लड़ा गया था यह युद्ध धर्मयुद्ध भी था यह युद्ध धर्म के विजय के लिए भी लड़ी गई थी कौरव पुत्रो और पांडवपुत्रो के बिच लड़े गए इस युद्ध में पाण्डवपुत्र धर्म को आधार मान कर युद्ध में विजय के लिए खड़े हुवे थे वही कौरव पुत्र सिर्फ हस्तिनापुर के युवराज बनाने के लालच में सिंघासन पर अपने एकाधिकार के लिए वह अधर्म का मार्ग अपनाया और अधर्म के साथ युद्ध भूमि में खड़े थे।
युद्ध के समय युद्धभूमि में कौरव और पांडवो की सेना आमने सामने युद्ध करने के लिए तैयार कड़ी थी। पांडव पुत्र धनुर्धारी अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण को रथ को दोनों सेनाओ के मध्य में ले जाने का आग्रह किया। भगवान् श्री कृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओ के मध्य में गए फिर अर्जुन ने सामने खड़े अपने प्रियजन को देख कर मोहग्रस्त हो गए और भगवान् श्री कृष्ण से नाना प्रकार के प्रमाण देते हुवे कहने लगे अपने दादा, गुरु और भाइयो को मार कर इस युद्ध को जित कर यदि मुझे पुरे पृथ्वी का भी राज मिल जाये तो भी मैं सुखी नहीं रह सकता यह युद्ध शास्त्र सम्मत नहीं, इस युद्ध से कुल ख़त्म होने का खतरा हैं और कुल ख़त्म करने का भी पाप लगता हैं इसीलिए युद्ध अनुचित हैं और उसे यह युद्ध नहीं करनी चाहिए। युद्धभूमि में खड़े होकर एक क्षत्रिय अर्जुन द्वारा ऐसी माया से वशीभूत बात सुन कर श्री कृष्ण ने जो ज्ञान दिया वही ज्ञान गीता कहलाया जिसमे कुल अठारह अध्याय और 700 श्लोक हैं आइये आज प्रथम 10 श्लोकों को पुरे विस्तार पूर्वक अर्थ सहित जानते हैं।
जन्म से अंधे धृतराष्ट्र का मन कौतुहल से भरा था। धृतराष्ट्र केअपने ज्येष्ठ पुत्र दुर्योद्धन को राज गद्दी पर बैठाने की कामना भी कही न कही इस युद्ध के मुख्य कारणों में से एक हैं।
कौरव के पिता धृतराष्ट्र संजय से पूछते है बताओ युद्ध भूमि धर्मभूमि करुक्षेत्र में क्या हो रहा हैं ?
Geeta in hindi |
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।
भावार्थ: "धृतराष्ट्र, संजय से पूछते हैं की धर्मक्षेत्र में करुक्षेत्र में युद्ध की इक्षा से एकत्रित मेरे और पांडव के पुत्र क्या कर रहे हैं ?"
संजय उवाच
महर्षि वेद व्यास जी ने धृतराष्ट्र की युद्ध को जानने की इक्षा को पूर्ण करने के लिए संजय को दिव्यदृष्टि दी थी जिससे की संजय बिना युद्ध भूमि में गए ही युद्ध का सारा आंखोदेखा हाल जिसे आज हम लाइव कमेंट्री कहते हैं सुनाया। :-
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत ।
भावार्थ: संजय कहते हैं की- उस समय राजा दुर्योधन ने पांडवो की विशाल सेना के व्यूहरचना को देख कर आचार्य गुरुद्रोण के समिप जा कर यह वचन कहा।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।
भावार्थ: हे आचार्य ! पाण्डुपुत्रों के इस विशाल सेना को देखिए जो आपके ही बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टधुम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की गई हैं।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङग्वः ।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्चा सर्व एवं महरथाः ।।
भावार्थ: इस सेना में बड़े बड़े धनुषवाले योद्धा तथा युद्ध में अर्जुन और भीम सामान शूरवीर योद्धा, विराट और राजा द्रुपद जैसे महारथी, धृष्टकेतु, चेकितान तथा वीर्यवान काशी नरेश, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यो में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधा मन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रा पुत्र एवं द्रौपदी पाँचो पुत्र : ये सभी महारथी हैं।
अस्माकंतु विशिष्टा ये तान्निवोध द्विजोत्तम
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान ब्रवीमिते ।।
भावार्थ: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरे सेना के जो जो सेनापती हैं उनके बारे में बतलाता हूँ ।।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्चकृपश्च समितिञ्जयः
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ।।
भावार्थ: आप - द्रोणाचार्य पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा ।।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।।
भावार्थ: और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्र अस्त्रों सुसज्जित और सब के सब चतुर हैं।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षित्तम्
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।।
भावार्थ: भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सर्व प्रकार से अजेय हैं भीम द्वारा रक्षित इनलोगो की यह सेना जितने में सुगम हैं।
अध्याय 1 श्लोक 7,8 और 9
पांडवो के सेना में सम्मिलित वीरो योद्धाओं का परिचय कराने के बाद दुर्योधन अपने सेना में सम्मिलित योद्धाओं का परिचय गुरु द्रोणाचार्य से कराते हुवे कहता हैं की।
अस्माकंतु विशिष्टा ये तान्निवोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान ब्रवीमिते।
भावार्थ: हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरे सेना के जो जो सेनापती हैं उनके बारे में बतलाता हूँ।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्चकृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।
भावार्थ: आप - द्रोणाचार्य पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा। और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्र अस्त्रों सुसज्जित और सब के सब चतुर हैं। सम्पूर्ण गीता सुनने के लिए सब्सक्राइब करना ना भूले।
अध्याय 1 श्लोक 10
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्
भावार्थ। हमारी शक्ति अपरिमेय है और हम सब पितामह द्वारा भलीभाँति संरक्षित हैं, जबकि पाण्डवों की शक्ति भीम द्वारा भलीभाँति संरक्षित होकर भी सीमित है ।
यहाँ पर दुर्योधन सोचता है कि अत्यन्त अनुभवी सेनानायक भीष्म पितामह के द्वारा विशेष रूप से संरक्षित होने के कारण उसकी सशस्त्र सेनाओं की शक्ति अपरिमेय हैं । दूसरी ओर पाण्डवों की सेनाएँ सीमित हैं क्योंकि उनकी सुरक्षा एक कम अनुभवी नायक भीम द्वारा की जा रही है जो भीष्म की तुलना में नगण्य है ।
दुर्योधन सदैव भीम से ईर्ष्या करता था क्योंकि वह जानता था की यदि उसकी मृत्यु कभी हुई भी तो वह भीम के द्वारा ही होगी । किन्तु साथ ही उसे दृढ विश्र्वास था कि भीष्म की उपस्थिति में उसकी विजय निश्चित है क्योंकि भीष्म कहीं अधिक उत्कृष्ट सेनापति हैं । वह युद्ध में विजयी होगा यह उसका दृढ निश्चय था ।
अध्याय 1 श्लोक 11
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः |
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।
भावार्थ :- अतएव सैन्यव्यूह में अपने-अपने मोर्चों पर खड़े रहकर आप सभी भीष्म पितामह को पूरी-पूरी सहायता दें ।
तात्पर्य :- भीष्म पितामह के शौर्य की प्रशंसा करने के बाद दुर्योधन ने सोचा की कहीं अन्य योद्धा यह न समझ लें कि उन्हें कम महत्त्व दिया जा रहा है। अतः दुर्योधन ने अपने सहज कुटनीतिक ढंग से स्थिति सँभालने के उद्देश्य से उपर्युक्त शब्द कहें।
उसने बलपूर्वक कहा कि भीष्मदेव निःसंदेह महानतम योद्धा हैं किन्तु अब वे वृद्ध हो चुके हैं अतः प्रत्येक सैनिक को चाहिए की चारों ओर से उनकी सुरक्षा का विशेष ध्यान रखे। हो सकता है कि किसी एक दिशा में युद्ध करने में लग जायँ ओर शत्रु इस व्यस्तता का लाभ उठा ले।
अतः यह आवश्यक है कि अन्य योद्धा मोर्चों पर अपनी-अपनी स्त्गीती पर अडिग रहें और शत्रु को व्यूह न तोड़ने दें। सम्पूर्ण गीता सुनने के लिए सब्सक्राइब करना ना भूले।
अध्याय 1 श्लोक 12
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः |
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || १२ ||
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || १२ ||
तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह-गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ |
अध्याय 1 श्लोक 13
ततः शङ्खाश्र्च भेर्यश्र्च पणवानकगोमुखाः |
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोSभवत् || १३ ||
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोSभवत् || १३ ||
तत्पश्चात् शंख, नगाड़े, बिगुल, तुरही तथा सींग सहसा एकसाथ बज उठे | वह समवेत स्वर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण था |
तात्पर्य।
दुर्योधन को खुश करने के लिए पितामह भीष्म द्वारा बजाये गए अत्यंत उच्च स्वर में बजाए गए शंख की ध्वनि को सुनकर दुर्योधन साथ ही कौरवो की सेना ने पुरे हर्षोउल्लास में एक साथ विभिन्न प्रकार के शंख, बिगुल तुरही,सींग ढोल-नगाड़े आदि उच्च स्वर में बजाने लगे। ये सभी सम्मिलत स्वर मानो पुरे युद्धभूमि को हिला के रख दिया था। यह अत्यंत कोलाहल मचाने वाला था। दुर्योधन अति प्रसन्न और अपनी जीत के प्रति अत्यंत दृढ निश्चित था। दुर्योधन अपने अहंकार से अंधा हो चूका था। सम्पूर्ण गीता सुनने के लिए समझने के लिए इस चैनल को सब्सक्राइब करना ना भूले।
अध्याय 1 श्लोक 14
ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || १४ ||
माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || १४ ||
दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये
तात्पर्य
अध्याय 1 श्लोक 15
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय |
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः || १५ ||
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः || १५ ||
भगवान् कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड्र नामक शंख बजाया |
इस श्लोक में भगवान् कृष्ण को हृषीकेश कहा गया है क्योंकि वे ही समस्त इन्द्रियों के स्वामी हैं | सारे जीव उनके भिन्नांश हैं अतः जीवों कि इन्द्रियाँ भी उनकी इन्द्रियों के अंश हैं | चूँकि निर्विशेषवादी जीवों कि इन्द्रियों का कारण बताने में असमर्थ हैं इसीलिए वे जीवों को इन्द्रियरहित या निर्विशेष कहने के लिए उत्सुक रहते हैं | भगवान् समस्त जीवों के हृदयों में स्थित होकर उनकी इन्द्रियों का निर्देशन करते हैं | किन्तु वे इस तरह निर्देशन करते हैं कि जीव उनकी शरण ग्रहण कर ले और विशुद्ध भक्त की इन्द्रियों का तो वे प्रत्यक्ष निर्देशन करते हैं | यहाँ कुरुक्षेत्र कि युद्धभूमि में भगवान् कृष्ण अर्जुन की दिव्य इन्द्रियों का निर्देशन करते हैं इसीलिए उनको हृषीकेश कहा गया है | भगवान् के विविध कार्यों के अनुसार उनके भिन्न-भिन्न नाम हैं | उदाहरणार्थ, इनका एक नाम मधुसूदन है क्योंकि उन्होंने मधु नाम के असुर को मारा था, वे गौवों तथा इन्द्रियों को आनन्द देने के कारण गोविन्द कहलाते हैं, वसुदेव के पुत्र होने के कारण इनका नाम वासुदेव है, देवकी को माता रूप में स्वीकार करने के कारण इनका नाम देवकीनन्दन है, वृन्दावन में यशोदा के साथ बाल-लीलाएँ करने के कारण ये यशोदानन्दन हैं, अपने मित्र अर्जुन का सारथी बनने के कारण पार्थसारथी हैं | इसी प्रकार उनका एक नाम हृषीकेश है, क्योंकि उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन का निर्देशन किया |
इस श्लोक में अर्जुन को धनञ्जय कहा गया है क्योंकि जब इनके बड़े भाई को विभिन्न यज्ञ सम्पन्न करने के लिए धन की आवश्यकता हुई थी तो उसे प्राप्त करने में इन्होंने सहायता की थी | इसी प्रकार भीम वृकोदर कहलाते हैं क्योंकि जैसे वे अधिक खाते हैं उसी प्रकार वे अतिमानवीय कार्य करने वाले हैं, जैसे हिडिम्बासुर का वध | अतः पाण्डवों के पक्ष में श्रीकृष्ण इत्यादि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विशेष प्रकार के शंखों का बजाया जाना युद्ध करने वाले सैनिकों के लिए अत्यन्त प्रेरणाप्रद था | विपक्ष में ऐसा कुछ न था; न तो परम निदेशक भगवान् कृष्ण थे, न ही भाग्य की देवी (श्री) थीं | अतः युद्ध में उनकी पराजय पूर्वनिश्चित थी – शंखों कि ध्वनि मानो यही सन्देश दे रही थी |
अध्याय 1 श्लोक 16, 17 और 18
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः |
नकुलः सहदेवश्र्च सुघोषमणिपुष्पकौ || १६ ||
काश्यश्र्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः |
धृष्टद्युम्नो विराटश्र्च सात्यकिश्र्चापराजितः || १७ ||
उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर तीर चलाने के लिए उद्यत हुआ | हे राजन् ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यूह में खड़ा देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से ये वचन कहे |
युद्ध प्रारम्भ होने ही वाला था | उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि पाण्डवों की सेना कि अप्रत्याशित व्यवस्था से धृतराष्ट्र के पुत्र बहुत कुछ निरुत्साहित थे क्योंकि युद्धभूमि में पाण्डवों का निर्देशन भगवान् कृष्ण के आदेशानुसार हो रहा था | अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चिन्ह भी विजय का सूचक है क्योंकि हनुमान ने राम तथा रावण युद्ध में राम कि सहायता की थी जिससे राम विजयी हुए थे | इस समय अर्जुन कि सहायता के लिए उनके रथ पर राम तथा हनुमान दोनों उपस्थित थे | भगवान् कृष्ण साक्षात् राम हैं और जहाँ भी राम रहते हैं वहाँ नित्य सेवक हनुमान होता है तथा उनकी नित्यसंगिनी, वैभव कि देवी सीता उपस्थित रहती हैं | अतः अर्जुन के लिए किसी भी शत्रु से भय का कोई कारण नहीं था | इससे भी अधिक इन्द्रियों के स्वामी भगवान् कृष्ण निर्देश देने की लिए साक्षात् उपस्थित थे | इस प्रकार अर्जुन को युद्ध करने के मामले में सारा सत्परामर्श प्राप्त था | ऐसी स्थितियों में, जिनकी व्यवस्था भगवान् ने अपने शाश्र्वत भक्त के लिए की थी, निश्चित विजय के लक्षण स्पष्ट थे |
अध्याय 1 श्लोक 21 - 22
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेSच्युत |
यावदेतान्निरिक्षेSहं योद्धुकामानवस्थितान् || २१ ||
कैर्मया सह योद्ध व्यमस्मिन्रणसमुद्यमे || २२ ||
अर्जुन ने कहा - हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ |
यद्यपि श्रीकृष्ण साक्षात् श्रीभगवान् हैं, किन्तु वे अहेतुकी कृपावश अपने मित्र कि सेवा में लगे हुए थे | वे अपने भक्तों पर स्नेह दिखाने में कभी नहीं चूकते इसीलिए अर्जुन ने उन्हें अच्युत कहा है | सारथी रूप में उन्हें अर्जुन की आज्ञा का पालन करना था और उन्होंने इसमें कोई संकोच नहीं किया, अतः उन्हें अच्युत कह कर सम्बोधित किया गया है | यद्यपि उन्होंने अपने भक्त का सारथी-पद स्वीकार किया था, किन्तु इससे उनकी परम स्थिति अक्षुण्ण बनी रही | प्रत्येक परिस्थिति में वे इन्द्रियों के स्वामी श्रीभगवान् हृषीकेश हैं | भगवान् तथा उनके सेवक का सम्बन्ध अत्यन्त मधुर एवं दिव्य होता है | सेवक स्वामी की सेवा करने के लिए सदैव उद्यत रहता है और भगवान् भी भक्त कि कुछ न कुछ सेवा करने के लिए सदैव उद्यत रहता है और भगवान् भी भक्त कि कुछ न कुछ सेवा करने कि कोशिश में रहते हैं | वे इसमें विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं कि वे स्वयं आज्ञादाता न बनें अपितु उनके शुद्ध उन्हें आज्ञा दें | चूँकि वे स्वामी हैं, अतः सभी लोग उनके आज्ञापालक हैं और उनके ऊपर उनको आज्ञा देने वाला कोई नहीं है | किन्तु जब वे देखते हैं की उनका शुद्ध भक्त आज्ञा दे रहा है तो उन्हें दिव्य आनन्द मिलता है यद्यपि वे समस्त परिस्थितियों में अच्युत रहने वाले हैं |
भगवान् का शुद्ध भक्त होने के कारण अर्जुन को अपने बन्धु-बान्धवों से युद्ध करने कि तनिक भी इच्छा न थी, किन्तु दुर्योधन द्वारा शान्तिपूर्ण समझौता न करके हठधर्मिता पर उतारू होने के कारण उसे युद्धभूमि में आना पड़ा | अतः वह यह जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक था कि युद्धभूमि में कौन-कौन से अग्रणी व्यक्ति उपस्थित हैं | यद्यपि युद्धभूमि में शान्ति-प्रयासों का कोई प्रश्न नहीं उठता तो भी वह उन्हें फिर से देखना चाह रहा था और यह देखना चाह रहा था कि वे इस अवांछित युद्ध पर किस हद तक तुले हुए हैं।
अध्याय 1 श्लोक 23
योत्स्यमानानवेक्षेSहं य एतेSत्र समागताः |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः || २३ ||
भावार्थ।
मुझे उन लोगों को देखने दीजिये जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योधन) को प्रसन्न करने की इच्छा से लड़ने के लिए आये हुए हैं |
तात्पर्य
यह सर्वविदित था कि दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र की साँठगाँठ से पापपूर्ण योजनाएँ बनाकर पाण्डवों के राज्य को हड़पना चाहता था | अतः जिन समस्त लोगों ने दुर्योधन का पक्ष ग्रहण किया था वे उसी के समानधर्मा रहे होंगे | अर्जुन युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व यह तो जान ही लेना चाहता था कि कौन-कौन से लोग आये हुए हैं | किन्तु उनके समक्ष समझौता का प्रस्ताव रखने की उसकी कोई योजना नहीं थी | यह भी तथ्य था की वह उनकी शक्ति का, जिसका उसे सामना करना था, अनुमान लगाने कि दृष्टि से उन्हें देखना चाह रहा था, यद्यपि उसे अपनी विजय का विश्र्वास था क्योंकि कृष्ण उसकी बगल में विराजमान थे |
अध्याय 1 श्लोक 24
सञ्जय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् || २४ ||
संजय ने कहा - हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने दोनों दलों के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया |
तात्पर्य
इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहा गया है | गुडाका का अर्थ है नींद और जो नींद को जीत लेता है वह गुडाकेश है | नींद का अर्थ अज्ञान भी है | अतः अर्जुन ने कृष्ण कि मित्रता के कारण नींद तथा अज्ञान दोनों पर विजय प्राप्त की थी | कृष्ण के भक्त के रूप में वह कृष्ण को क्षण भर भी नहीं भुला पाया क्योंकि भक्त का स्वभाव ही ऐसा होता है | यहाँ तक कि चलते अथवा सोते हुए भी कृष्ण के नाम, रूप, गुणों तथा लीलाओं के चिन्तन से भक्त कभी मुक्त नहीं रह सकता | अतः कृष्ण का भक्त उनका निरन्तर चिन्तन करते हुए नींद तथा अज्ञान दोनों को जीत सकता है | इसी को कृष्णभावनामृत या समाधि कहते हैं | प्रत्येक जीव कि इन्द्रियों तथा मन के निर्देशक अर्थात् हृषीकेश के रूप में कृष्ण अर्जुन के मन्तव्य को समझ गये कि वह क्यों सेनाओं के मध्य में रथ को खड़ा करवाना चाहता है | अतः उन्होंने वैसा ही किया और फिर वे इस प्रकार बोले |
अध्याय 1 श्लोक 25
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति || २५ ||
भीष्म, द्रोण तथा विश्र्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो।
तात्पर्य
समस्त जीवों के परमात्मास्वरूप भगवान् कृष्ण यह जानते थे कि अर्जुन के मन में क्या बीत रहा है | इस प्रसंग में हृषीकेश शब्द प्रयोग सूचित करता है कि वे सब कुछ जानते थे | इसी प्रकार पार्थ शब्द अर्थात् पृथा या कुन्तीपुत्र भी अर्जुन के लिए प्रयुक्त होने के कारण महत्त्वपूर्ण है | मित्र के रूप में वे अर्जुन को बता देना चाहते थे कि चूँकि अर्जुन उनके पिता वसुदेव कि बहन पृथा का पुत्र था इसीलिए उन्होंने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया था | किन्तु जब उन्होंने अर्जुन से “कुरुओं को देखो” कहा तो इससे उनका क्या अभिप्राय था? क्या अर्जुन वहीँ पर रुक कर युद्ध करना नहीं चाहता था? कृष्ण को अपनी बुआ पृथा के पुत्र से कभी भी ऐसी आशा नहीं थी | इस प्रकार से कृष्ण ने अपने मित्र कि मनःस्थिति कि पूर्वसूचना परिहासवश दी है |
अध्याय 1 श्लोक 26
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान् |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा |
श्र्वश्रुरान्सुहृदश्र्चैव सेनयोरुभयोरपि || २६ ||
अर्जुन ने वहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताउओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा |
तात्पर्य
अर्जुन युद्धभूमि में अपने सभी सम्बंधियों को देख सका | वह अपने पिता के समकालीन भूरिश्रवा जैसे व्यक्तियों, भीष्म तथा सोमदत्त जैसे पितामहों, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे गुरुओं, शल्य तथा शकुनि जैसे मामाओं, दुर्योधन जैसे भाइयों, लक्ष्मण जैसे पुत्रों, अश्र्वत्थामा जैसे मित्रों एवं कृतवर्मा जैसे शुभचिन्तकों को देख सका | वह उन सेनाओं को भी देख सका जिनमें उसके अनेक मित्र थे |
अध्याय 1 श्लोक 27
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् |
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् || २७ ||
जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला |
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् |
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिश्रुष्यति || २८ ||
भावार्थ। अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! इस प्रकार युद्ध कि इच्छा रखने वाले मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुँह सूखा जा रहा है |
तात्पर्य।
यथार्थ भक्ति से युक्त मनुष्य में वे सारे सद्गुण रहते हैं जो सत्पुरुषों या देवताओं में पाये जाते हैं जबकि अभक्त अपनी शिक्षा या संस्कृति के द्वारा भौतिक योग्यताओं में चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो इस इश्र्वरीय गुणों से विहीन होता है | अतः स्वजनों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को युद्धभूमि में देखते ही अर्जुन उन सबों के लिए करुणा से अभिभूत हो गया, जिन्होनें परस्पर युद्ध करने का निश्चय किया था | जहाँ तक उसके अपने सैनिकों का सम्बन्ध थे, वह उनके प्रति प्रारम्भ से दयालु था, किन्तु विपक्षी दल के सैनिकों कि आसन्न मृत्यु को देखकर वह उन पर भी दया का अनुभव कर रहा था | और जब वह इस प्रकार सोच रहा था तो उसके अंगों में कंपन होने लगा और मुँह सूख गया | उन सबको युद्धाभिमुख देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ | प्रायः सारा कुटुम्ब, अर्जुन के सगे सम्बन्धी उससे युद्ध करने आये थे | यद्यपि इसका उल्लेख नहीं है, किन्तु तो भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि न केवल उसके अंग काँप रहे थे और मुँख सूख रहा था अपितु वह दयावश रुदन भी कर रहा था | अर्जुन में ऐसे लक्षण किसी दुर्बलता के कारण नहीं अपितु हृदय की कोमलता के कारण थे जो भगवान् के शुद्ध भक्त का लक्षण है |
अध्याय 1 श्लोक 29
वेपथुश्र्च शरीरे मे रोमहर्षश्र्च जायते |
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते || २९ ||
मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है |
तात्पर्य
शरीर में दो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी दो प्रकार से खड़े होते हैं | ऐसा या तो आध्यात्मिक परमानन्द के समय या भौतिक परिस्थितियों में अत्यधिक भय उत्पन्न होने पर होता है | दिव्य साक्षात्कार में कोई भय नहीं होता | इस अवस्था में अर्जुन के जो लक्षण हैं वे भौतिक भय अर्थात् जीवन कि हानि के कारण हैं | अन्य लक्षणो से भी यह स्पष्ट है; वह इतना अधीर हो गया कि उसका विख्यात धनुष गाण्डीव उसके हाथों से सरक रहा था और उसकी त्वचा में जलन उत्पन्न हो रही थी | ये सब लक्षण देहात्मबुद्धि से जन्य हैं |
अध्याय 1 श्लोक 30
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः |
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव || ३० ||
भावार्थ। मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ | मैं अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है | हे कृष्ण! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं |
तात्पर्य
अपने अधैर्य के कारण अर्जुन युद्धभूमि में खड़ा रहने में असमर्थ था और अपने मन की इस दुर्बलता के कारण उसे आत्मविस्मृति हो रही थी | भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य ऐसी मोहमयी स्थिति में पड़ जाता है | भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात् – (भागवत ११.२.३७) – ऐसा भय तथा मानसिक असुंतलन उन व्यक्तियों में उत्पन्न होता है जो भौतिक परिस्थितियों से ग्रस्त होते हैं | अर्जुन को युद्धभूमि में केवल दुखदायी पराजय की प्रतीति हो रही थी – वह शत्रु पर विजय पाकर भी सुखी नहीं होगा | निमित्तानि विपरीतानि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं | जब मनुष्य को अपनी आशाओं में केवल निराशा दिखती है तो वह सोचता है “मैं यहाँ क्यों हूँ?” प्रत्येक प्राणी अपने में तथा अपने स्वार्थ में रूचि रखता है | किसी की भी परमात्मा में रूचि नहीं होती | क्रिःन की इच्छा से अर्जुन अपने स्वार्थ के प्रति अज्ञान दिखा रहा है | मनुष्य का वास्तविक स्वार्थ तो विष्णु या कृष्ण में निहित है | बद्धजीव इसे भूल जाता है इसीलिए उसे भौतिक कष्ट उठाने पड़ते हैं | अर्जुन ने सोचा कि उसकी विजय केवल उसके शोक का कारण बन सकती है
अध्याय 1 श्लोक 31
न च श्रेयोSनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे |
न काड्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च || ३१ ||
भावार्थ। हे कृष्ण! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार कि विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ |
तात्पर्य
यह जाने बिना कि मनुष्य का स्वार्थ विष्णु (या कृष्ण) में है सारे बद्धजीव शारीरिक सम्बन्धों के प्रति यह सोच कर आकर्षित होने हैं कि वे ऐसी परिस्थितियों में प्रसन्न रहेंगे | ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण वे भौतिक सुख के कारणों को भी भूल जाते हैं | अर्जुन तो क्षत्रिय का नैतिक धर्म भी भूल गया था | कहा जाता है कि दो प्रकार के मनुष्य परम शक्तिशाली तथा जाज्वल्यमान सूर्यमण्डल में प्रवेश करने के योग्य होते हैं | ये हैं – एक तो क्षत्रिय जो कृष्ण की आज्ञा से युद्ध में मरता है तथा दूसरा संन्यासी जो आध्यात्मिक अनुशीलन में लगा रहता है | अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहा है – अपने सम्बन्धियों कि बात तो छोड़ दें | वह सोचता है कि स्वजनों को मारने से उसे जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा , अतः वह लड़ने के लिए इच्छुक नहीं है, जिस प्रकार कि भूख न लगने पर कोई भोजन बनाने को तैयार नहीं होता | उसने तो वन जाने का निश्चय कर लिया है जहाँ वह एकांत में निराशापूर्ण जीवन काट सके | किन्तु क्षत्रिय होने के नाते उसे अपने जीवननिर्वाह के लिए राज्य चाहिए क्योंकि क्षत्रिय कोई अन्य कार्य नहीं कर सकता | किन्तु अर्जुन के पास राज्य कहाँ है? उसके लिए तो राज्य प्राप्त करने का एकमात्र अवसर है कि अपने बन्धु-बान्धवों से लड़कर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त करे जिसे वह करना नहीं चाह रहा है | इसीलिए वह अपने को जंगल में एकान्तवास करके निराशा का एकांत जीवन बिताने के योग्य समझता है |
अध्याय 1 श्लोक 32,33,34,35
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा |
येषामर्थे काड्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च || ३२ ||
त इमेSवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च |
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः || ३३ ||
मातुलाः श्र्वश्रुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा |
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोSपि मधुसूदन || ३४ ||
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते |
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीति स्याज्जनार्दन || ३५ ||
भावार्थ
हे गोविन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं | हे मधुसूदन! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें? हे जीवों के पालक! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें | भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी?
अध्याय 1 श्लोक 36
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः |
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव || ३६ ||
अध्याय 1 श्लोक 37 - 38
2 टिप्पणियाँ
आपके आर्टिकल मुझे काफी अच्छे लगते है, आप ऐसे ही प्रेरणादायक आर्टिकल लिखते रहा करो
जवाब देंहटाएंSudhir here from latestnewssuno.com
dhnywaad aapki bhi blog bahut gud hain. best of luck!!
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