सन 1900 के समय में बंगाल सहित पुरे भारत में ईशाई मिशनरियो का धर्मान्तरण का कार्य पुरे जोर शोर से चल रहा था। उन मिशनरियों द्वारा हिन्दू धर्म के लोगो के बिच अनेक इशाई साहित्य बाटे जा रहे थे और उन साहित्यों में हिन्दू देवी-देवताओं के बारे में अपमानजनक बाते भी लिखी होती थी। ब्राह्मणो और सनातन परम्परा को भी इन ईसाई साहित्य द्वारा बदनाम किया जा रहा था ताकि ज्यादा से ज्यादा हिन्दू लोगो का दिमाग बदल कर ईसाई बनाया जा सके साथ ही बाइबिल भी बाटा जा रहा था। कुल मिलाकर गुलामी काल में अंग्रेजो के सह पर धर्मान्तरण को खूब बढ़ावा मिल रहा था।
कोलकता उस समय युवा क्रांतिकारियों का केंद्र बन चूका था और धर्मांतरण मुख्य रूप से क्रांतिकारियों के लिए गहरी चिंता का विषय था। कोलकत्ता विश्वविद्याल के हॉस्टल में ऐसे कई युवा क्रांतिकारी रहते और पढाई करते थे। एक दिन अग्रेजो को शक हुआ की कुछ क्रन्तिकारी हॉस्टल में भी रहते हैं फिर अंग्रेजो ने बिना किसी चार्ज इन हॉस्टल के सभी छात्रों को जेल में ठूस दिया .
इन सभी युवा छात्रों में एक छात्र ऐसा था जो सामान्य मारवाड़ी परिवार से शिक्षा ग्रहण करने आया था उसका इससे पहले राजनितिक या क्रांति में कभी कोई हअनुभव नहीं था। दादीमाँ के द्वारा संस्कारित यह छात्र पूरी तरह से धार्मिक और हनुमान जी का भक्त था। लेकिन जेल में क्रांतिकारियों के साथ बिताए गए पल ने इस छात्र के दिल और दिमाग पर गहरा छाप छोड़ा जिसने आने वाले समय में भारत में एक बौद्धिक सांस्कृतिक क्रांति को जन्म दिया। जेल क्रांतिकारियों के विचारो के प्रभाव से ही उस छात्र का हृदय परिवर्तन हुआ और फिर वह भारत को सांस्कृतिक आज़ादी दिलाने के क्रांति में कूद पड़ा
गीता प्रेस सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में एक प्रसिद्ध प्रेस है जिसका अपना एक ब्रांड वैल्यू हैं। गीता प्रेस के संस्थापक कोई और नहीं कोलकत्ता विश्वविद्यालय के हॉस्टल का वही छात्र था जिसे सभी छात्रों के साथ जेल में ठूस दिया गया। बड़ा हो कर मारवाड़ी परिवार में जन्मे वह छात्र व्यवसाय छोड़ धर्म कार्य में लग गया। गुलामी काल में भी घर घर तक गीता प्रेस के माध्यम से गीता, रामायण, महाभारत, पुराणों, वेदो, ऋषियों की लिखी अनेक प्रेरक रचनाओं को पहुँचाया और ईसाई साहित्यो के षड्यंत्र का अंत किया।
वह छात्र कोई और नहीं हनुमान प्रसाद पोद्दार थे जिन्होंने विश्व प्रसिद्ध गीता प्रेस की नीव रखी और आज भी घर घर गीता रामायण आदि ग्रंथो को पहुँचाने का कार्य उनकी प्रेरणा से और बताए गए रास्तो पर चल कर गीता प्रेस कर रही हैं। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी का जन्म 17 सितम्बर 1892 एक मारवाड़ी परिवार में हुई थी। जब वो मात्र दो साल के उम्र के थे तब माँ का साया सर से उठ गया, जिस कारण हनुमान प्रसाद पोद्दार के पालन पोषण की सारी जिम्मेदारी उनकी दादीमाँ पर आ गई थी। हनुमान प्रसाद का पालन पोषण उन्होंने बहुत ही सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से कीया जिस वजह से मारवाड़ी परिवार में जन्मे हनुमान प्रसाद पोद्दार बचपन से ही बहुत धार्मिक और हनुमान भक्त थे। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के माता का नाम रिखीबाई तथा पिताजी का नाम लाला भीमराज अग्रवाल था। पोद्दार जी के माता-पिता दोनों बहुत बड़े हनुमान भक्त थे इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान रखा।
उस समय के मारवाड़ी प्रचलन के अनुसार हनुमान प्रसाद पोद्दार का विवाह कम उम्र में ही हो गया और पत्नी को माँ बाप के पास छोड़ वो काम धंधा सिखने कोलकता चले गए जहाँ उनकी गिरफ्तारी हुई और वो फिर क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गए तथा बाइबिल के बराबर गीता को भी घर घर पहुँचाने का मन बनाया।
जेल से छूटने के बाद काम धंधे के सिलसिले में पहले तो मुंबई चले गए लेकिन उनका मन किसी बड़े धार्मिक कार्य की तरफ आकर्षित हो रहा था। मुंबई में रहते हुवे उन्होंने मारवाड़ी खादी प्रचार संघ की स्थापना की उसके बाद वो प्रसिद्ध संगीताचार्य विष्णु दिगंबर सत्संग में भी आये उनके ह्रदय में संगीत का झरना बाह निकला भक्ति गीत लिखे जो 'पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकशित भी हुवे। उनका गीता के प्रति प्रेम और लोगो का गीता के प्रति जिज्ञासा को देखते हुवे उन्होंने निश्चय किया की वो कम से कम लागत पर घर घर इस परम पुष्तक को पहुंचाने का कार्य करेंगे।
कोलकता उस समय युवा क्रांतिकारियों का केंद्र बन चूका था और धर्मांतरण मुख्य रूप से क्रांतिकारियों के लिए गहरी चिंता का विषय था। कोलकत्ता विश्वविद्याल के हॉस्टल में ऐसे कई युवा क्रांतिकारी रहते और पढाई करते थे। एक दिन अग्रेजो को शक हुआ की कुछ क्रन्तिकारी हॉस्टल में भी रहते हैं फिर अंग्रेजो ने बिना किसी चार्ज इन हॉस्टल के सभी छात्रों को जेल में ठूस दिया .
इन सभी युवा छात्रों में एक छात्र ऐसा था जो सामान्य मारवाड़ी परिवार से शिक्षा ग्रहण करने आया था उसका इससे पहले राजनितिक या क्रांति में कभी कोई हअनुभव नहीं था। दादीमाँ के द्वारा संस्कारित यह छात्र पूरी तरह से धार्मिक और हनुमान जी का भक्त था। लेकिन जेल में क्रांतिकारियों के साथ बिताए गए पल ने इस छात्र के दिल और दिमाग पर गहरा छाप छोड़ा जिसने आने वाले समय में भारत में एक बौद्धिक सांस्कृतिक क्रांति को जन्म दिया। जेल क्रांतिकारियों के विचारो के प्रभाव से ही उस छात्र का हृदय परिवर्तन हुआ और फिर वह भारत को सांस्कृतिक आज़ादी दिलाने के क्रांति में कूद पड़ा
Hanuman Prasad Poddar ji |
गीता प्रेस सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में एक प्रसिद्ध प्रेस है जिसका अपना एक ब्रांड वैल्यू हैं। गीता प्रेस के संस्थापक कोई और नहीं कोलकत्ता विश्वविद्यालय के हॉस्टल का वही छात्र था जिसे सभी छात्रों के साथ जेल में ठूस दिया गया। बड़ा हो कर मारवाड़ी परिवार में जन्मे वह छात्र व्यवसाय छोड़ धर्म कार्य में लग गया। गुलामी काल में भी घर घर तक गीता प्रेस के माध्यम से गीता, रामायण, महाभारत, पुराणों, वेदो, ऋषियों की लिखी अनेक प्रेरक रचनाओं को पहुँचाया और ईसाई साहित्यो के षड्यंत्र का अंत किया।
वह छात्र कोई और नहीं हनुमान प्रसाद पोद्दार थे जिन्होंने विश्व प्रसिद्ध गीता प्रेस की नीव रखी और आज भी घर घर गीता रामायण आदि ग्रंथो को पहुँचाने का कार्य उनकी प्रेरणा से और बताए गए रास्तो पर चल कर गीता प्रेस कर रही हैं। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी का जन्म 17 सितम्बर 1892 एक मारवाड़ी परिवार में हुई थी। जब वो मात्र दो साल के उम्र के थे तब माँ का साया सर से उठ गया, जिस कारण हनुमान प्रसाद पोद्दार के पालन पोषण की सारी जिम्मेदारी उनकी दादीमाँ पर आ गई थी। हनुमान प्रसाद का पालन पोषण उन्होंने बहुत ही सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से कीया जिस वजह से मारवाड़ी परिवार में जन्मे हनुमान प्रसाद पोद्दार बचपन से ही बहुत धार्मिक और हनुमान भक्त थे। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के माता का नाम रिखीबाई तथा पिताजी का नाम लाला भीमराज अग्रवाल था। पोद्दार जी के माता-पिता दोनों बहुत बड़े हनुमान भक्त थे इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान रखा।
उस समय के मारवाड़ी प्रचलन के अनुसार हनुमान प्रसाद पोद्दार का विवाह कम उम्र में ही हो गया और पत्नी को माँ बाप के पास छोड़ वो काम धंधा सिखने कोलकता चले गए जहाँ उनकी गिरफ्तारी हुई और वो फिर क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गए तथा बाइबिल के बराबर गीता को भी घर घर पहुँचाने का मन बनाया।
जेल से छूटने के बाद काम धंधे के सिलसिले में पहले तो मुंबई चले गए लेकिन उनका मन किसी बड़े धार्मिक कार्य की तरफ आकर्षित हो रहा था। मुंबई में रहते हुवे उन्होंने मारवाड़ी खादी प्रचार संघ की स्थापना की उसके बाद वो प्रसिद्ध संगीताचार्य विष्णु दिगंबर सत्संग में भी आये उनके ह्रदय में संगीत का झरना बाह निकला भक्ति गीत लिखे जो 'पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकशित भी हुवे। उनका गीता के प्रति प्रेम और लोगो का गीता के प्रति जिज्ञासा को देखते हुवे उन्होंने निश्चय किया की वो कम से कम लागत पर घर घर इस परम पुष्तक को पहुंचाने का कार्य करेंगे।
मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का वार्षिक अधिवेषन में पड़ा नीव :-
1926 में हुवे इस अधिवेषन में पोद्दार जी की मुलाकात सेठ घनश्याम बिरला (जो की पोद्दार जी द्वारा लिखित भाषण से प्रभावित थे) हुई उन्होंने कहा की तुम लोगो का जो भी विचार हैं उसको हिंदी भाषा में सरल रूप में एक पत्र के माध्यम से लोगो तक पहुँचाने का कार्य करो तभी जा कर धर्म प्रचार संभव है और आप लोग एक महान कार्य करने में सफल होंगे। सेठ बिरला जी के इस विचार से पोद्दार जी को अपने सपने को पूरा करने का रास्ता दिख गया था।
भाई जी के नाम से प्रसिद्ध हो चुके पोद्दार जी ने इस विचार को जयदयाल गोयनका के पास रखी दोनों को विचार बहुत पसंद आया। तब तक जयदयाल जी ने गीता प्रेस का रेजिस्ट्रेशन 1923 में आनद भवन में करा लिया था और फिर गीता प्रेस से 'कल्याण' नामक पहला संस्करण छपना प्रारम्भ हुआ। कल्याण पत्रिका के पहले संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार थे। संपदान तथा लेखन कार्य में पोद्दार जी एक दिन में अठारह अठारह घंटे कार्य करते थे। अपने कठिन परिश्रम से भाई जी ने गीता प्रेस को वह मुकाम दिलाई जो शायद अन्य किसी प्रेस को आजतक ना मिल सकी।
गीता प्रेस के स्थापना के पीछे का एक मात्र उद्देश्य यह था की प्रकाशन सामग्री की गुणवत्ता के साथ कोई भी समझौता किये बिना न्यूनतम मूल्य और सरलतम भाषा में धर्मशास्त्रों को जन जन तक पहुँचाना। गीता प्रेस चलाने के लिए गोयनका जी ने और पोद्दार जी ने चंदा लेने से भी इनकार कर दिया। 5 साल के भीतर गीताप्रेस देश भर में फ़ैल चुकी थी और विभिन्न धर्मग्रंथो का अनुवाद और प्रकाशन कर रही थी। गरुणपुराण, कूर्मपुराण आदि का प्रकाशन ही नहीं पहला शुद्ध अनुवाद भी प्रकाशित कर रही थी।
कई बार गए जेल :-
ग्रन्थ लेखन के कार्यो के अलावा भी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। कोलकत्ता से ही उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविन्द घोष, देशबंधु, चितरंजन दास, पंडित झाबरमल शर्मा के संपर्क आए और उनके साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। वीर सावरकर के लेखो से पोद्दार जी बहुत प्रभावित हुवे और मुंबई में उन्होंने सावरकर जी और शुभाष चंद्र बोस से भी मुलाकात की। आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुवे वो कई बार जेल भी गए। अलीपुर जेल में अर्बिनो घोष और हनुमान प्रसाद दोनों कैदी थे। जेल के समय का उपयोग पोद्दार जी हनुमान जी की पूजा पाठ तथा गीता जैसे धार्मिकग्रन्थों के पठन पाठन में करते थे।
गोरखधाम बना गीता प्रेस का संरक्षक :-
गीता प्रेस ने श्री मद्भागवत गीता और रामचरित मानस के करोड़ो प्रतियाँ छपी और वितरित की होंगी। इसका पहला अंक मुंबई से प्रकाशित हुआ और एक साल बाद इसे गोरखपुर से ही प्रकाशित किया जाने लगा। उसी समय गोरखधाम मंदिर के प्रमुख और नाथ संप्रदाय के सिरमौर गीता प्रेस का संरक्षक बने। आज के समय गोरखधाम मंदिर प्रमुख उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गीताप्रेस के संरक्षक हैं।
yogi aaditynaath naath sampraday head |
ठुकराया भारत रत्न और अंग्रेजो का राय बहादुर पुरस्कार :-
अंग्रेजो के जमाने में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा लोकप्रियता को देखते हुवे तत्कालीन कलेक्टर पेडले ने उन्हें राय साहब की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रख जिसे पोद्दार जी द्वारा ठुकरा दिया गया। आज़ादी के बाद तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभ पंत ने भी भाई जी को भारत रत्न के लिए प्रस्तावित करना चाहा जिसे पोद्दार जी ने मना कर दिया। पोद्दार जी सम्पन्न परिवार से होते हुवे भी वो हमेशा आम आदमी की यापन करते थे और आम आदमी की ही सांस्कृतिक उन्नति में लगे रहते थे।
प्रसाद पोद्दार जी का स्वर्गवास 22 मार्च 1971 को हुआ। उनके मृत्यु के पश्चात् गोरखपुर में प्रेस के जिस कमरे में, जिस डेस्क पर, कुर्सी पर बैठ कर लेखन या सम्पादन का कार्य करते थे। वह डेस्क कमरा अक्षुण रखे गए हैं साथ ही उनके कमरे में अखंड रामचरित मानस का पाठ बिना रुके होता रहता हैं।
hanumaan prassad poddar geeta press gorakhpur history
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